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देव उठावनी एकादशी की महत्ता

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देव उठावनी एकादशी

प्रति वर्ष कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की तिथि एकादशी को देव उठावनी ग्यारस मनाते हैं,जिसे देव प्रबोधिनी एकादशी और देवोत्थान एकादशी भी कहते हैं। यह दिन विष्णु जी को समर्पित है ,क्योंकि विष्णु जी चार महीने की योगनिद्रा से आज ही जागते हैं ऐसा मन जाता है और आज से सभी मांगलिक व शुभ कार्य प्रारंभ किए जाते हैं। आज भगवान विष्णु जी की प्रसन्नता के लिए व्रत रख कर पूजा -पाठ करने का विधान है। देव उठावनी एकादशी के दिन ही शालिग्राम और तुलसी माता का विवाह होता है। इस दिन पूजा करने से अश्वमेघ यज्ञ करने का फल मिलता है।श्रीकृष्ण ने कहा है कि देव उठावनी एकादशी की रात्रि में जागरण कर पूजा करने से दस पीढ़ियां विष्णु लोक को प्राप्त करती हैं और पितृ मुक्ति पाते हैं।
प्रचलित कथाएं इस प्रकार हैं:
पहली कथा है किपहली कथा है कि एक राज्य में देव उठावनी एकादशी के दिन प्रजा से लेकर कोई पशु भी अन्न ग्रहण नहीं करता था। एक दिन विष्णु जी ने परीक्षा लेने की सोची और पहली रात एक सुंदरी बन कर सड़क किनाारे बैठ गए । राजा की भेंट राह में सुंदरी से हुई तो उन्होंने कारण पूछा कि यहां क्यों बैठी हो तो सुंदरी ने कहा कि वह बेसहारा है । राजा उसके रूप पर मोहित हो गए और बोले कि तुम रानी बन कर मेरे साथ चलो । सुंदरी ने शर्त रखी कि राजा का यह प्रस्ताव वह तब स्वीकार करेगी जब उसे पूरे राज्य का अधिकार दिया जाएगा और वह जो बनाएगी राजा को वह खाना पड़ेगा ।राजा ने शर्त मान ली । अगले दिन एकादशी पर सुंदरी ने बाजारों में अन्य दिनों की तरह अनाज बेचने का आदेश दिया । मांसाहारी भोजन बना कर राजा को वह खाने पर विवश करने लगी । रानी ने शर्त याद दिलाई तो राजा ने कहा कि मैं आज सिर्फ फलाहार ही ग्रहण करता हूं ।रानी ने कहा कि अगर यह तामसिक भोजन ग्रहण नहीं किया तो बड़े राजकुमार का सिर धड़ से अलग कर दूंगी । राजा ने बड़ी रानी को बताया तो उसने धर्म का पालन करने को कहा और अपने बेटे का सिर काट देने को तैयार हो गई ।सुंदरी के रूप में विष्णु जी अति प्रसन्न हो गए और अपने असली रूप में आकर राजा को दर्शन दिए। विष्णु जी ने राजा को बताया कि यह परीक्षा थी और तुम उत्तीर्ण हो गए । वरदान मांगने को कहा तो राजा बोले अब मेरा उद्धार करिए । राजा की प्रार्थना विष्णु जी ने स्वीकार कर ली और राजा ने मृत्योपरांत बैकुंठ लोक का वास दिया।

दूसरी कथा है कि एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत करते थे । प्रजा ,नौकर -चाकर और पशुओं तक को उस दिन अन्न नहीं देते थे । एक दिन राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आया और बोला मुझे नौकरी पर रख लें । राजा ने कहा कि ठीक है, परन्तु एकादशी के दिन तुम्हें अन्न नहीं मिलेगा। राजा के शर्त को उस व्यक्ति ने मान लिया। देव उठावनी एकादशी आई तो वह राजा के सामने गिड़गिड़ाने लगा कि फल आहार से उसका पेट नहीं भरेगा और वह भूखा मर जाएगा । राजा ने उसे शर्त याद दिलाई तो भी वह अन्न का त्याग करने को राजी नहीं हुआ ।राजा ने उसे आटा,दाल और चांवल आदि अन्न दिए ।वह व्यक्ति नित्य की तरह स्नान कर भोजन बनाने लगा ।भोजन बन गया तो वह प्रार्थना करने लगा कि आओ भगवान भोजन तैयार है। बुलाने पर भगवान चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए और प्रेम से भोजन कर अंतर्धान हो गए । तत्पश्चात वह अपने काम पर चला गया।पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी पर उस व्यक्ति ने राजा से कहा कि मुझे दुगुनी सामग्री दो । उस दिन मैं भूखा रह गया था । राजा ने कारण पूछा तो उसने कहा कि भगवान भी मेरे साथ भोजन करते हैं ।राजा बोला कि मै इतने व्रत रखता हूं और पूजा -पाठ करता हूं परन्तु,भगवान ने कभी दर्शन नहीं दिए । राजा की बात सुन कर वह बोला कि आप स्वयं चल कर देख लें । राजा नदी किनारे पेड़ के पीछे छिप कर बैठ गया । उस व्यक्ति ने भोजन बनाया और भगवान को सायंकाल तक पुकारता रहा परन्तु वे नहीं आए । अंत में व्यक्ति बोला कि भगवान आप नहीं आए तो नदी में कूद कर प्राण त्याग दूंगा और नदी की ओर बढ़ा तो भगवान ने प्रकट होकर रोक लिया तथा साथ में बैठ कर भोजन करने लगे । यह देख कर राजा को ज्ञान की प्राप्ति हुई कि व्रत- -उपवास के साथ मन जब तक निर्मल व शुद्ध नहीं हो भगवान नहीं मिलते। राजा भी मन से विकार रहित होकर व्रत ,उपवास करने लगे और अंत में बैकुंठ लोक को गए।

तीसरी प्रमुख कथा शिव महापुराण की है । दैत्यों का राजा दंभ था और वह बहुत भगवान विष्णु भक्त था । कई वर्षों तक संतान नहीं होने पर उसने शुक्राचार्य जी को अपना गुरू बना कर उनसे श्रीकृष्ण मंत्र ले लिया और पुष्कर सरोवर में घोर तपस्या करी । विष्णु जी ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर संतान प्राप्ति का वरदान प्रकट हो कर दे दिया ।राजा दंभ के यहां एक पुत्र हुआ जिसका नाम शंखचूढ़ रखा गया । शंखचूढ़ ने ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने हेतु घोर तपस्या करी जिससे ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा । शंखचूढ़ ने मांगा कि वह सदा अजर ,अमर रहे और किसी देवता से या अन्य से नहीं मरे । ब्रह्मा जी ने वरदान देकर कहा कि तुम बदरीवन जाकर धर्मध्वज की पुत्री तुलसी से विवाह करो जो बहुत समय से तपस्यारत है । शंखचूढ़ ने वैसा ही किया और तुलसी से विवाहोपरांत सुख से रहने लगा। शंखचू़ढ़ ने अपने बल से देवताओं ,असुरों ,राक्षसों, गंधर्वों ,नागों ,किन्नरों,मनुष्यों और त्रिलोकी पर विजय प्राप्त कर ली । शंखचूढ़ से सभी देवता त्रस्त होकर ब्रह्मा जी के पास गए तो ब्रह्मा जी उन्हें विष्णु जी के पास ले गए ।विष्णु जी ने कहा कि उसकी मृत्यु शिव जी के त्रिशूल से होगी अत: आप सब उनके पास जाएं । वे शिव जी के पास गए तो शिव जी ने चित्ररथ नाम के एक गण के द्वारा शंखचूढ़ को संदेश भेजा कि देवताओं को उनका राज्य लौटा दे ।शंखचूढ़ नहीं माना और कहा कि वह शिव जी से युद्ध करना चाहता है । शिव जी यह बात सुन कर सेना लेकर निकल पड़े ।देवताओ और दानवों में घोर युद्ध हुआ ,परन्तु ब्रह्मा जी के वरदान के कारण उसे हरा नहीं पाए। शिव जी ने उसका वध करने के लिए ज्यों ही त्रिशूल उठाया तो आकाशवाणी हुई कि जब तक शंखचूढ़ के हाथ में विष्णु जी का कवच है और इसकी पत्नी का सतीत्व अखंडित है तब तक इसका वध असंभव है । यह सुन कर विष्णु जी एक वृद्ध ब्राह्मण बन कर शंखचूढ़ के पास गए और विष्णु जी का कवच मांगा जो शंखचूढ़ ने तुरंत दान कर दिया ।विष्णु जी शंखचूढ़ का रूप बना कर तुलसी के पास उसके महल पहुंचे और अपनी विजय की घोषणा करी । यह सुनकर तुलसी प्रसन्न हुई पति रूप में आए विष्णु जी का पूजन व रमण किया और ऐसा करते ही तुलसी का सतीत्व खंडित हो गया तथा शिव जी ने त्रिशूल से शंखचूढ़ का वध कर दिया । तुलसी को पता चला जब पति का सिर दरवाजे पर आ गिरा। वह जान गई कि उसके साथ विष्णु जी ने छल किया है ।तुलसी ने श्राप दिया कि आपने छल से मेरा सतीत्व भंग किया है इसलिए धरती पर आप पाषाण बन कर रहेंगे ।विष्णु जी बोले देवी तुमने भारतवर्ष में रह कर मेरे लिए बहुत तपस्या कर चुकी हो इसलिए तुम्हारा ये शरीर गंडकी नदी होगा और तुम श्रेष्ठ तुलसी का पेड़ बन जाओगी व सदा मेरे साथ ही रहोगी। गंडकी नदी के तट पर मेरा वास होगा और देव प्रबोधिनी एकादशी पर शालिग्राम से तुम्हारा विवाह संपन्न होकर ही मांगलिक कार्य प्रारंभ होंगे । जो भी विवाह करेगे तुलसी और शालिग्राम का उन्हे अपार पुण्य प्राप्त होगा ।

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